केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्ष वर्धन ने 10 अक्टूबर 2014 को भारतीय राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य
नीति का आरंभ किया. यह भारत की सबसे पहली मानसिक स्वास्थ्य नीति है जिसे केंद्र
सरकार द्वारा आयोजित सबसे पहले राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर शुरु
किया था. राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति को केंद्र सरकार द्वारा अप्रैल 2011
में मानसिक स्वास्थ्य पर गठित नीति समूह की सिफारिशों के आधार पर
तैयार किया गया.
यह नीति वर्ष 2012 में जिनेवा में
आयोजित 65वीं विश्व स्वास्थ्य सभा जिसका भारत भी एक हिस्सा
था, में पारित डब्ल्यूएचए 65.4 प्रस्ताव
के अनुरूप है .
डब्ल्यूएचए 65.4 प्रस्ताव में मानसिक विकारों के वैश्विक बोझ और सामुदायिक स्तर पर स्वास्थ्य और सामाजित क्षेत्रों से व्यापक, समन्वित प्रतिक्रिया की जरूरतों पर प्रकाश डाला गया है.
डब्ल्यूएचए 65.4 प्रस्ताव में मानसिक विकारों के वैश्विक बोझ और सामुदायिक स्तर पर स्वास्थ्य और सामाजित क्षेत्रों से व्यापक, समन्वित प्रतिक्रिया की जरूरतों पर प्रकाश डाला गया है.
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति का विजन
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति का विजन सुलभ, सस्ती औऱ गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य एवं सामाजिक देखभाल के जरिए सभी लोगों को आजीवन सही फ्रेमवर्क में मानसिक स्वास्थ्य को प्रोत्साहन देना, मानसिक बीमारी को रोकना, मानसिक बीमारी से ठीक होने में सक्षम करना, डिस्टिगमटाइजेशन औऱ डिसेग्रेगेशन को बढ़ावा देना, और मानसिक रूप से बीमार लोगों के सामाजिक–आर्थिक समावेशन को सुनिश्चित करना है.
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति का लक्ष्य
• तनाव, विकलांगता, अपवर्जन रुग्णता और व्यक्ति के जीवन काल में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के साथ जुड़े समय पूर्व मृत्यु दर को कम करने के लिए.
• देश में मानसिक स्वास्थ्य की समझ बढ़ाने के लिए.
• राष्ट्रीय, राजकीय और जिला स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य क्षेत्र में नेतृत्व को मजबूत करने के लिए.
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति के उद्देश्य
• मानसिक स्वास्थ्य देखभाल तक सार्वभौमिक पहुंच प्रदान करने के लिए.
• मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं वाले लोगों का मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को बढ़ाने और उसका व्यापक मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग को बढ़ाने के लिए.
• अतिसंवेदनशील समूहों जैसे बेघर लोगों, सूदूर इलाके के निवासियों, सामाजिक और कमजोर वर्ग के सदस्यों तक मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को बढाने के लिए.
• मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़ीं जोखिम के कारकों के प्रभाव को कम करने के लिए.
• आत्महत्या और आत्महत्या के प्रयासों के जोखिम औऱ घटानाओँ को कम करने के लिए.
• मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं वाले लोगों के अधिकारों के सम्मान और नुकसान से उन्हें बचाने के लिए.
• मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के साथ जुड़े कलंक को कम करने के लिए.
• मानसिक स्वास्थ्य के लिए कुशल मानव संसाधनों की उपलब्धता औऱ समान वितरण को बढ़ाने के लिए.
• मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन औऱ देखभाल के लिए वित्तीय आवंटन को बढ़ाने और उपयोग में सुधार के लिए.
• मानसिक स्वास्थ्य समस्याओँ के सामाजिक, जैविक और मनोवैज्ञानिक निर्धारकों को संबोधित और उचित हस्तक्षेप प्रदान करने के लिए.
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति तैयार करने के प्रयास
वर्ष 1987 की शुरुआत में, राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति की रूपरेखा बनाने के प्रयास शुरु किए गए थे. इसका परिणाम मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 के अधिनियमन में हुई. लेकिन अधिनियम कई त्रुटियों की वजह से राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कभी प्रभाव में नहीं आ सका.
मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 ने मानसिक रूप से बीमारों पर नियंत्रण करने वाले भारतीय पागलखाना अधिनियम, 1858, और भारतीय पागलखाना अधिनियम, 1912 में बदलाव की मांग की. इन अधिनियमों में मानवाधिकारों के पहलुओं को बड़े पैमाने पर अनदेखा किया गया था और ये सिर्फ हिरासत में रखने के मामलों से जुड़े थे.
टिप्पणी
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत की आबादी का करीब 20 फीसदी साल 2020 क किसी न किसी प्रकार के मानसिक विकार से पीड़ित होगी. हालांकि, देश में सिर्फ 3500 मनोचिकित्सक हैं. इसलिए, सरकार अगले दशक में इस अंतर को कम करने की समस्या से जूझ रही है.
इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य औऱ गरीबी के बीच दो– तरफा रिश्ता है जिसके सबूत कई रिपोर्ट में मिले हैं. इन रिपोर्टों में विश्व विकलांगता रिपोर्ट, 2010 भी शामिल है. यह हमें सचेत करता है कि अपने हानिकारक परिणामों के साथ यह बहुत बड़ा समाज संकट बन सकता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत की आबादी का करीब 20 फीसदी साल 2020 क किसी न किसी प्रकार के मानसिक विकार से पीड़ित होगी. हालांकि, देश में सिर्फ 3500 मनोचिकित्सक हैं. इसलिए, सरकार अगले दशक में इस अंतर को कम करने की समस्या से जूझ रही है.
इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य औऱ गरीबी के बीच दो– तरफा रिश्ता है जिसके सबूत कई रिपोर्ट में मिले हैं. इन रिपोर्टों में विश्व विकलांगता रिपोर्ट, 2010 भी शामिल है. यह हमें सचेत करता है कि अपने हानिकारक परिणामों के साथ यह बहुत बड़ा समाज संकट बन सकता है.
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