कक्षा-6 (इतिहास)

| Tuesday, September 3, 2013
                              
  आदिम मानव(पाठ-1) 
      खानाबदोश मनुष्य
   उन लोगों को जो शिकार करते थे और जिनका जीवन पौधों व फलों पर निर्भर था, स्थाई जीवन में परिवर्तित होने में लाखों साल लग गए। खाद्य-सग्राहक से खाद्य-उत्पादक तक की अवस्था तक पहुचँने में आदमी को करीब 3,00,000 साल लग गए। पंरन्तु एक बार यह सीखने के बाद मनुष्य नें बड़ी तेजी से उन्नति की। मनुष्य का अपने आसपास के वातावरण पर जितना अधिक नियंत्रण होता है, उतनी ही अधिक तेजी से वह उन्नति करता है।
      आरंभ में लोग खानाबदोश थे, यानी वे भोजन और आश्रय की तालाश में झुंड बनाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे। आमतौर पर एक झुंड में कुछ पुरुष, स्त्रियाँ तथा बच्चे होते थे। सुरक्षा की दृष्टि से, अकेले रहने की बजाए समूह बनाकर रहना बेहतर था। उन दिनों का जीवन सचमुच ही बड़ा कठिन था, क्योंकि लोग पेड़ो के फल-फूल, जंगली पौधे खाते थे और जो जानवर मिल जाते उनका शिकार करते थे। वे शाक-भाजी या अनाज पैदा करना नहीं जानते थे। इसलिए जब वे एक स्थान पर मिलने वाली सभी वस्तुऔं को खाकर खत्म कर देते, तो उन्हें भोजन की तालाश में अन्य किसी स्थान पर जाना पड़ता था। इसी प्रकार, जब वे एक स्थान पर पाए जाने वाले अधिकांश पशुओं का शिकार कर लेते तो शिकार की खोज में उन्हें दूसरे स्थान पर जाना पड़ता था।
      यदि कहीं गुफाएँ होतीं तो मनुष्य उन्हीं में रहने लगते थे। अन्यथा वे बड़े पेड़ो की पत्तों वाली शाखाओं के बीच अपने लिए शरण-स्थान बना लेते थे। उन्हे दो चीजों का भय रहता था-मोसम और जंगली जानवरों का। आदि मानव नहीं जानता था कि बादल क्यों गरजते हैं या बिजली क्यों चमकती है। और, जब किसी चीज का कारण समझ में नहीं आता, तो आदमी उससे भयभीत रहता है। बाघ, शेर, चीता, हाथी और गैंडे जैसे खूँखार जानवर जंगलो में घूमते-फिरते रहते थे। (उन दिनों भारत खूब जंगल थे।) इन जानवरों की तुलना में मनुष्य कमजोर थे, इसलिए उन्हें या तो गुफाओं और पैड़ो में छिपकर अपनी रक्षा करनी पड़ती थी या फिर अपने अनगढ़ हथियारो से उन्हें मार डालना पड़ता था। परन्तुं इन जानवरो से रक्षा का सर्वोत्तम् उपाय था आग।
      रात के समय जब सभी प्राणी गुफा में जमां हो जाते, तो गुफा के मुहँ पर आग जलाई जाती थी। आग के डर से जानवर गुफा के भीतर नहीं आते थे। शीतकाल में तूफानी रातों में आग ही उन्हें आराम तथा सुरक्षा प्रदान करती थी। आग की खोज सयोंग से हुई थी। चकमक पत्थर के दो टुकडों को आपस में टकराने से एक चिनगारी उठी, और जब वह सूखी पत्तियों और टहनियों पर गिरी तो उनमें से आग निकली। आग एक अजूबा थी। पंरतु आगे जाकर इसका अनेक कामों में इस्तेमाल किया गया और इससे रहन-सहन में बड़ा सुधार हुआ। इस प्रकार, आग की खोज को हम एक महान खोज कह सकते हैं।
      औजार और हथियार
   चकमक पत्थर का, आग पैदा करने के अलावा, अन्य कई कामों में इस्तेमाल होता था। चकमक पत्थर कठोर है, परंतु इसके चिप्पड़ आसानी से निकलते हैं। इसलिए इसे तरह-तरह के आकार दिए जा सकते हैं। चकमक पत्थर तथा कुछ अन्य किस्मों के पत्थरों का औजार और हथियार बनाने में इस्तेमाल हुआ। इस तरह की कुछ चीजें उप-महाद्वीप के विविध भागों की नदियों में मिली हैं। कुछ स्थानों में, जैसे कश्मीर की घाटी में जानवरों की हडिडयों से भी औजार और हथियार बनाए जाते थे। पत्थरों के बडें टुकड़ों से, जो आदमी की मुट्ठी में आ सकते हैं, हथोड़े, कुल्हाड़ियाँ और बसूले बनाए जाते थे। आंरभ में बिना मूठ की कुल्हड़ियों से ही पेड़ आदि की टहनियाँ काटी जाती थीं। बाद में उसे डंडे से बाँध दिया गया, उसकी शक्ति बढ़ गयी और उसका बेहतर उपयोग होने लगाष। औजारों के उपयोग से आदमी को बड़ा लाभ हुआ। इनसे वह पेड़ो की टहनियाँ काटने, जानवर मारने, जमीन खोदने और लकड़ी तथा पत्थर को शक्ळ देने में सर्मथ हुआ।
      पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े, जो प्राय बड़े टुकड़ों के छीलन व कतरन होते थे, उतनीं              सावधानी से बनाए जाते थे कि उनमें  पतली धार आ जाती थी, और तब बारीक काम के सिए उनका चाकू या खुरचनी के रुप में उपयोग होता था अथवा उन्हें नोकदार बनाकर तीर या भाले के साथ बाँध दिया जाता था। पानी की सुविधा के सिए खाद्य-सग्रांहक प्राय नदी या झरने के किनारे रहते थे। यदि तुम हिमालय की तराई की नदियों के पाटों में या दक्कन के पटार के कुछ भागों में, जैसे, नर्मदा की घाटी में घूमो और जमीन में गौर से दोखो, तो यगा-कदा आदिम मानव का ऐसा कोई औजार तुम्हारे हाथ लग सकता है। पुरातत्ववेत्ता इन औजारों को अश्मोपकरण कहते हैं। 
      कपड़े
   कपड़ो, के बारे में कोई अधीक कठिनाई नहीं थी। गरमी के मौसम में बिना कपड़ों के चल जाता था। बरसात या ठंडक के दिनों में मारे हुए पशुओं की खाल, वृक्ष की छाल एथवा बड़े पत्ते कपड़े के रुप में काम में लाए जाते थे। बदन पर लपेटे गए एक या दो मृगचर्म ,शरीर को गर्म रखने के लिए पर्याप्त थे।
      स्थिर जीवन का आंरभ
   जैसे-जैसे अपने आसपास की वस्तुओं का अधिक ज्ञान होता गया, वैसे-वैसे अधिक सुविधा का जीवन बिताने की व्यक्ति की लालसा बढ़ती गई। कुछ नई खोजों के साथ आदमी का रहन-सहन भी बदल गया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण खोज थी- पौधे उगाना और अन्न पैदा करना। भूमि में बीज डालने और पानी देने से पौधे उगते हैं। यह कृषि की शुरुआत थी। यह एक महत्वपूर्ण खोज थी, क्योंकि उन्हें अब भोजन की तालाश में एक जगह से दूसरी जगह भटकने की जरुरत नहीं रह गयी थी। उन्होंने एक स्थान पर टिके रहने वाले किसान का जीवन शुरु  कर दिया था। जीवन-पद्धति में ये परिवर्तन भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न कालों गें हुए। हमारे देश के अधिकांश स्थानों में ये परिवर्तन आज से करीब चार से पांच हजार साल पहले हुए।
      पशु-पालन
   लोगों ने एक और महत्वपूर्ण खोज की। उन्हें पता चल गया कि जंगली पशुओं को पालतू बनाया जा सकता है, यानी वे उन्हें अपपने काम के लिए उपयोग में ला सकते हैं। उदाहरण के लिए, जंगली बकरे-बकरियों को केवल मारा जा सकता था और उनका माँस खाया जा सकता था। परंतु पालतू बकरियाँ प्रतिदिन दूध दे सकती थीं, उनसे और बकरियाँ पैदा की जा सकती थीं, और उनमें से कुछ खाई भी जा सकती थीं। इस प्रकार शिकार के लिए बाहर जाने की जरुरत नहीं रह गई थी। कुत्ते को पालना मनुष्य के लिए बड़ा फायदेमंद सिद्ध हुआ। पालतू बनाए गए दूसरे पशु थे – भेड़ और ढोर। ढोरों का बड़ा लाभ था, बल्कि हल जोतने और गाड़ी खींचने में भी उन्हें काम में लाया जा सकता था।
       धातुओं की खोज
Ø       जब लोग एक स्थान पर साथाई रुप से बस गए और अन्न पैदा करने लग गए तो उन्हें सर्वप्रथम पेड़ों तथा झाड़ियों को काटकर या जलाकर जमीन साफ करनी पड़ी। इस काम में पहले के दो आविष्कार बड़े उपयोगी सिद्ध हुए। पत्थर की कुल्हाड़ियाँ पेड़ और झाड़ियाँ काटने के काम आईं और बाद में ठूँठ जला देने पर जमीन साफ होकर खेती के लिए तैयार हो गई। पत्थर की कुल्हाड़ियों से पेड़ काटना बड़े परिश्रम का काम था, पर सौभाग्य से एक अन्य खोज ने पेड़ों को काटना आसान बना दिया। यह थी धातुओं की खोज। आंरभ में तांबे की खोज हुई। बाद में तांबे के साथ दूसरी धातुएँ मिलाई गई, जैसे, राँगा, जस्ता या सीसा। इन्हें मिलाने से जो मिश्रधातु बनी वह कासाँ कहलाई। यह सब कैसे हुआ, कच्ची धातु के पिंड को पिघलाकर किस प्रकार धातु तैयार की गई। यह हमें मालूम नहीं है। धातुओं की छुरियाँ और कुल्हाड़ियाँ पत्थर के औजारों से अधिक पैनी और बेहतर काम करने वाली सिद्ध हुई। जिस युग में मनुष्य केवल पत्थर और औजारों का इस्तेमाल करता था उसे पाषाण युग (अथवा पुरा पाषाण तथा नव पाषाण युग) कहते हैं । जिस युग में मनुष्य ने छोटे-छोटे पत्थरो के औजारों के साथ-साथ धातु के औजारों का इस्तेमाल शुरु कर दिया उसे ताम्र युग कहते हैं। भारत के कई स्थानों से उस युग की ताबें या कासें की कुल्हाड़ियाँ और छुरियाँ मिली हैं। ऐसे कुछ स्थान हैं- ब्रहमगिरी (मैसूर के पास) और नवदा-टोली (नर्मदा के तट पर)।
    पहिया
        एक अत्यंत महत्व की खोज थी चाक या पहिया। पर कोई नहीं जानता की पहिये की खोज किसने की और कहाँ की और कब की। लेकीन इस खोज से आदमी के जीवन में तेजी से प्रगति हुई। पहिया या चक्र की आवयश्यकता आज भी है। फिर वह चाहे हाथ की जैसी छोटी चीज के लिए हो या रेलगाड़ी जैसी बड़ी चीज के लिए। पहिए के आविष्कार ने जीवन को अनेक प्रकार से काफी सुगम बना दिया है। उदारहण के लिए, पहिए के प्रयोग के पहले लोग एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने के लिए या तो पैदल जाते थे या किसी पशु की पीठ पर बैठकर। लेकिन अब वे ऐसी गाड़ी बना सकते ते जिसे कोई पशु खींचता था और जिसमें एक से अधिक आदमी बैठकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच सकते थे। पहिए ने भारी चीजों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में सहायता दी, जो पहले संभव नहीं था। इसके अलावा, चाक के प्रयोग ने मिट्टी के बेहतर बर्तन बनाने में योग दिया।
    प्रारंभिक गाँव
        मानव का जीवन स्थिर होने पर दूसरे कई परिवर्तन हुए। जब तक लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकना पड़ा, तब तक उन्हें पुरषों, स्त्रियों तथा बच्चों के बड़े समूहों में रहना पड़ा। समूह के भीतर एक-दूसरे को सुरक्षा और सहायता मिलती थी। जब लोग एक स्थान पर स्थाई रुप से बसने लगे, तो उनके बड़े समूह ही कायम रहे, पंरन्तु काम के लिहाज से उनकी पारिवारिक इकाइयाँ बन गईं। एक गाँव में कई परिवार बसते थे, इसलिए एक-दूसरे को सुरक्षा और सहायता मिलती रही। अब उन्होंने अपने लिए झोपड़ियाँ बनाईं, जौ, चावल या गेहूँ उगाने लगे और बकरियाँ, भेड़, ढोर तथा दूसरे पशु पालने लगे। ऐसे गाँव सारे भारतवर्ष में पाए गए हैं, पर नदियों की घाटियों में और समतल मैदानों में, जहाँ जमीन अधिक उपजाऊ होती थी और फसल उगाना आसान था, इनकी तादाद अधिक थी। पुरात्तववेत्ताओं ने ऐसे गाँवों के अनेक अवशेषों को खोज निकाला है। इन स्थलों को देखकर हम बता सकते हैं कि उस समय के लोग किस तरह का जीवन बिताते थे।
           गाँव छोटे थे और झोपड़ियाँ एक-दूसरे से सटी रहती थीं। एक-दूसरे के नजदीक रहने से जंगली जानवरों से गाँव की रक्षा करने में आसानी होती थी। झोपड़ियों के क्षेत्र को संभवत: मिट्टी  की दीवार या काँटेदार झाड़ी की बाड़ से घेर दिया जाता था। खेत इस घेरे के बाहार होते थे। आमतौर पर गाँव खेतों की अपेक्षा कुछ अधिक ऊँची भूमि पर बसा होता था। झोपड़ियाँ घास-फूस के छप्परों से ढकी जाती थीं और आमतौर पर एक-एक कमरे की होती थीं। बल्लियों की ठटरी बनाकर उस पर टहनियाँ और फूस बिछाई जाती थी। झोपड़ी में आग जलाकर उसमें खाना पकाया जाता था। रात के समय उसी आग के चारों ओर परिवार के लोग सोते थे।
           अब भोजन कच्चा नहीं, पकाकर खाया जाता था। माँस को आग पर भूना जाता था। दो पत्थरों के बीच अनाज पीसा जाता था और आटे की रोटी बनाई जाती थी। अतिरिक्त अनाज बड़े-बड़े घड़ो या मर्तबानों में रखा जाता था। खाना पकाने के लिए बर्तनों की जरुरत पड़ती थी। आंरभ में मिट्टी के बर्तन बनते थे, बाद में धातु के भी बनने लगे। शुरु में मिट्टी के बर्तन स्त्रियाँ बनाती थीं। वे अपने हाथों से मिट्टी को गोल घड़ो, कटोरों और तश्तरियों में ढाल देती थीं। फिर इन्हें धूप में सुखा लिया जाता था। आगे चलकर सुखाए गए इन मिट्टी के बर्तनों को भट्टे या आँवे में पकाया जाने लगा। तब ये बर्तन इतने सख्त और मजबूत हो जाते थे कि पानी में डालने पर भी नहीं गलते थे। और आगे चलकर चाक का इस्तेमाल होने लगा, तो चाक पर अधिक तेजी से बर्तन बनने लगे। ये बर्तन उसी प्रकार बनते थे जैसे आजकल गाँवों में बनाए जाते हैं। ताम्र-पाषाण युग के कुम्हार कभी-कभी अपने बर्तनों पर सुंन्दर रुपांकन करते थे।
    वस्त्र और आभूषण
         ताम्र-पाषाण के लोग आभूषण और सजावट के शौकीन थे। अब उनको जंगनी जानवरों और खराब मोसम के खिलाफ कठोर संघर्ष सहीं करना पड़ता था। इसलिए अब आभूषण बनाले के लिए उनके पास समय था। स्त्रियाँ सीपियों तथा हडिडयों के आभूषण पहनतीं थीं और बालों में सुंदर कंघियाँ लगाए रखती थीं। अब कपड़े केवल पशुओं की खाल, पेड़ों की छाल ओर पत्तों के नहीं होते थे। उन्होंने कपास के पौधे की रुई से सूत कातने और कपड़ा बुनने की विधि खोज ली थी। अवकाश का समय खेल और मनोंरजन में व्यतीत होता था।
    समाज
        जब लोग खानाबदोशी का जीवन छोड़कर गाँवों में रहने लगे, तब वे मनमानी नहीं करते थे, उनके लिए आचरण के नियम बनाना आवश्यक हो गया। दूसरे परिवारों और दूसरे समूहों के साथ रहने के लिए यह जरुरी था कि गाँव में कोई कानून और व्यवस्था हो। सर्वप्रथम यही निश्चत करना था कि प्रत्येक व्यक्ति का क्या काम हो। कुछ आदमी खेतों में काम करने जाते, जबकि कुछ पशुओं की देखभाल करते या झोपड़ियाँ बनाते या औजार तथा हथियार बनाते। पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी खेतों में काम करती थीं और पशुओं की देखभाल करतीं थीं। कुछ स्त्रियाँ सूत काततीं और कपड़ा बुनती थीं, कुछ मिट्टी के बर्तन बनाती थीं। स्त्रियाँ बर्तन बनाने के लिए कुम्हार के चाक का इस्तेमाल नहीं करतीं थीं। केवल पुरुष ही चाक पर बर्तन बनाते थे। कोन क्या काम करे, इसका निर्णय सारा गाँव मिलकर करता था। फिर भी गाँव में एक ऐसे नेता या मुखिया की आवयश्कता थी, जो आदेश दे सके। गाँव का सबसे वृद्ध आदमी ही प्राय: मुखिया होता था और उसे ही सबसे अधिक बुदिधमान भी समझा जाता था।
    धर्म
         जीवन के कुछ ऐसे पहलू थे जो मनुष्य के लिए पहेली बने हुए थे। हर रोज सूरज क्यों निकलता है और शाम क्यों डूब जाता है? नींद व स्वपन, जन्म, विकास और मृत्यु मनुष्य की समझ से बाहर थे। क्या कारण है कि हर साल वे ही ऋतुएँ बराबर आती-जाती हैं? मृत्यु के बाद व्यक्ति का क्या होता है? वे मृत्यु से डरते थे। वे बिजली की कड़कड़ाहट और भूकंप से भी डरते थे, क्योंकि वे इनका कारण नहीं जानते थे। कुछ लोगों ने इन सवालों के बारे में दूसरों की अपेक्षा अधिक सोचा और उनके उत्तर सुझाए। आकाश का एक देवता था जो सूर्य को प्रतिदिन आकाश में यात्रा करने की अनुमति देता था। धरती की कल्पना एक ऐसी माँ के रुप में की गई जो फसलों और पौधों से अपने बच्चों का पालन करती है। और यदि हर सुबह सूर्योदय होता रहे और धरती फसल पैदा करती रहे, तो आकाश के देवता और धरती माता को बलि देकर स्तुति-गान से संतुष्ट करना जरुरी था। मातृदेवी के रुप में धरती माता की छोटी मूर्तियाँ बनाई जाती थीं और सर्वत्र इनकी पूजा होती थी। इस प्रकार कुछ व्यक्ति चमत्कारी हो गए और दावा करने लगे कि वे मोसम पर काबू कर सकते हैं, बीमारी अच्छी कर सकते हैं और नुकसान से लोगों की रक्षा हैं। बाद में पुरोहितों का ऐसा वर्ग तैयार हुआ जो समूचे समाज की ओर से यज्ञ करता था और मंत्रों का गान करता था।
           मृत्यु एक ऐसे अन्य लोक की यात्रा समझी जाती थी जहाँ से कभी कोई वापस नहीं लोटता। इसलिए जब किसी पुरुष या स्त्री की मृत्यु हो जाती थी, तो कब्र या समाधि बनाकर उसे जमीन में गाड़ दिया जाता था। जब कोई बच्चा मर जाता, तो उसके शव को एक बड़े घड़े में रखकर गाड़ दिया जाता था। कभी-कभी समाधि स्थल को बड़ी-बड़ी प्रस्तर-शिलाओं से घेर भी दिया जाता था। शव के साथ बर्तन, मनके तथा अन्य ऐसी चीजें भी समाधि में रख दी जाती थीं, जिन्हें ग्रामवासी मरे हुए मनुष्य के लेए उसकी यात्रा में जरुरी समझते थे।
           इन लोगों के रहन-सहन का ढंग या व्यवहार का तरीका उस आदिम अवस्था से काफी आगे बढ़ गया था, जब मनुष्य खानाबदोश था और हर रोज भोजन जुटाता था। अब उनके पास रहने के लिए स्थाई जगह थी और वे अपने गावँ में सुरक्षित थे। वे चीजें बनाने के नए तरीके खोज रहे थे- ऐसे तरीके जो उनके जीवन को अधिक सुखमय और सुगम बना रहे थे। पंरतु अभी भी उनके जीवन में एक चीज का आभाव था जिसके कारण वे तेजी से उन्नति करने में असमर्थ थे। वे लिखना नहीं जानते थे। वे अपने बच्चों को यह तो सिखा सकते थे कि कैसे फसलें उगाई जाएँ. पशु कैसे पाले जाएँ या बर्तन कैसे बनाए जाएँ, पंरतु वे लिख नहीं सकते थे। लिखने का ज्ञान आगे जाकर तब हुआ जब नगरों का जन्म हुआ।..     THE END

7 comments:

Unknown said...

Abhyaas ke prasno ke uttar bhi post kre to bhot achha hota.

Hemant Kumar Verma said...

गजब जानकारी

Unknown said...

पहिए ने मनुष्य की क्या सहायता की

Unknown said...

Aadimanav khana band hote iske bare mein bataiye

Unknown said...

Bjhjetftydgoazch

Unknown said...

नवीन पाषाण युग में मनुष्य ने नुकीले पत्थरों और रंगों की सहायता से मनुष्यों, जानवरों और शिकार के दृश्यों के चित्र बनाये जो कि संसार के अलग-अलग स्थानों से प्राप्त हुए हैं। भारत में वह स्थान कौन सा है जहां ये प्राप्त हुए हैं ?

Unknown said...

Manav Jivan ki shuruaat Kahan Se Hui. ?

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