बेल्जियम बच्चों के लिए दया-मृत्यु की अनुमति देने वाला दूसरा देश बना-(15-FEB-2014) C.A

| Saturday, February 15, 2014
बेल्जियम की संसद ने 14 फरवरी 2014 को मरणांतक रूप से बीमार किसी भी उम्र के बच्चे की मृत्यु को वैध बना दिया. संसद ने यह निर्णय चर्च और कुछ बालचिकित्सकों के विरोध के बावजूद किया. बच्चों की मृत्यु को वैध बनाने का यह निर्णय देश द्वारा वयस्कों के लिए इच्छामृत्यु को वैध बनाने के 12 वर्ष बाद आया.    

इस महत्त्वपूर्ण कानून के पक्ष में 86 और विरोध में 44 वोट पड़े, जबकि 12 तटस्थ रहे. इस कानून ने उन बच्चों को इच्छामृत्यु का अवसर दिया है, जिनकी बीमारी ठीक होने की कोई आशा नहीं और जो निरंतर असहनीय कष्ट में हैं तथा जिनकी वैसे भी जल्दी ही मृत्यु हो जाने वाली है.   
इस कार्रवाई से बेल्जियम, जो कि एक कैथोलिक देश है, बच्चों के लिए इच्छामृत्यु की अनुमति देने वाला नीदरलैंड के बाद दूसरा देश और आयु संबंधी समस्त प्रतिबंध हटाने वाला पहला देश बन गया. यह कानून 75 प्रतिशत समर्थन पाने वाले एक सर्वेक्षण के साथ ओपिनियन पोल्स में अधिकतर बेल्जियंस द्वारा इस अभियान का पक्ष लिए जाने के बाद पारित किया गया.    
संसद द्वारा अनुमोदित कानून के अनुसार, छोटे बच्चे को डॉक्टर की मदद से अपनी जिंदगी खत्म करने की अनुमति दी जाएगी. कानून में मरणांतक बीमारी से ग्रस्त बच्चों द्वारा एक घातक इंजेक्शन से मृत्यु का चुनाव करने की कोई उम्र तय नहीं की गई है. यह कानून शाही हस्ताक्षरों के बाद ही अमल में आएगा.
सक्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति देने वाले अन्य यूरोपीय देश हैं:
लग्जमबर्ग, जो 18 वर्ष से ऊपर की उम्र में सक्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति देता है 
स्विट्जरलैंड डॉक्टरों को वयस्क रोगियों को आत्महत्या करने में मदद करने देता है 

इच्छा-मृत्यु के संबंध में भारत की स्थिति
भारत में इच्छामृत्यु या दयामृत्यु का मामला 2011 में पिंकी वीरानी द्वारा अरुणा शानबाग के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर किए जाने के साथ उभरा. अरुणा शानबाग 1973 से मुंबई स्थित किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में प्राय: निष्क्रिय स्थिति में पड़ी हैं. पिंकी वीरानी, जो कि एक पत्रकार हैं और जिन्होंने शानबाग पर एक किताब लिखी है, ने अपनी याचिका में दलील दी कि शानबाग को आधारभूत गरिमा से वंचित अपनी जिंदगी जीने पर मजबूर किया जा रहा है.
किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी चिताओं को सही समझते हुए भी अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम भारत संघ मामले (2011) में सक्रिय इच्छामृत्यु के बजाय निष्क्रिय इच्छामृत्यु के पक्ष में निर्णय दिया. किंतु निष्क्रिय इच्छामृत्यु परिस्थितियों पर अवलंबित है, जैसे कि इरिवर्सिबल कोमा के मामले में.   
सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय भी दिया कि हर मामले में संबंधित उच्च न्यायालय मामले के गुण-दोषों का आकलन करेगा और यह निर्णय करने से पहले कि निष्क्रिय इच्छामृत्यु लागू हो सकती है या नहीं, मामले को एक मेडिकल बोर्ड को भेजेगा. और संसद द्वारा इच्छामृत्यु पर नए कानून पारित किए जाने तक सुश्री शानबाग का मामला अन्य न्यायालयों द्वारा संदर्भ-बिदु (पॉइंट ऑफ रेफेरेंस) की तरह इस्तेमाल किया जाएगा. 
यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, जस्टिस एम जगन्नाद राव की अध्यक्षता में गठित 17वें विधि आयोग ने भी अपनी 196वीं रिपोर्ट में प्रारंभ में निष्क्रिय इच्छामृत्यु के पक्ष में दलील दी और मरणासन्न रूप से बीमार रोगियों का चिकित्सा-उपचार (रोगियों और चिकित्सकों की सुरक्षा) विधेयक, 2006 तैयार किया. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अरुणा शानबाग मामले में व्यक्त विचारों और 17वें विधि आयोग के विचारों का समर्थन जस्टिस पीवी रेड्डी की अध्यक्षता में गठित 19वें विधि आयोग ने अपनी 241वीं रिपोर्ट में किया.

सक्रिय इच्छामृत्यु में कुछ विशिष्ट कदम उठाया जाना शामिल है, जैसे कि रोगी को सोडियम पेंटोथल जैसे किसी घातक तत्त्व से युक्त इंजेक्शन लगाना, जिससे व्यक्ति कुछ ही सेकेंड में गहरी नींद में चला जाता है और नींद में ही बिना किसी दर्द के मर जाता है, इसलिए इसे किसी मरणांतक बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति का कष्ट दूर करने के लिए एक सकारात्मक कार्य द्वारा मारना समझा जाता है. इसे विश्वभर में अवैध समझा जाता है, सिवाय उन देशों के, जिन्होंने कानून द्वारा इसकी अनुमति दी है. भारत में भी यह अवैध है और भारतीय दंड संहिता की धारा 302 या धारा 304 के अंतर्गत अपराध है.   
निष्क्रिय इच्छामृत्यु, जिसे अन्यथा नकारात्मक इच्छामृत्यु के रूप में भी जाना जाता है, में चिकित्सा-उपचार रोकना या जीवन जारी रखने के लिए लगाया गया सपोर्ट-सिस्टम हटा लेना अर्थात एंटीबायोटिक न देना, जहाँ ऐसा किए बिना रोगी के मर जाने की संभावना है, या कोमा में पड़े रोगी से हार्ट-लंग मशीन हट लेना शामिल है.


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