21 सितंबर 2015 को केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने ' शहरी इलाकों में जलवायु परिवर्तन शमन' विषय पर परामर्शदात्री कार्यशाला का नई दिल्ली में आयोजन किया.
कार्यशाला के दौरान केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ' भवनों के लिए पर्यावरणीय दिशानिर्देशों' पर विस्तृत प्रस्तुति पेश की. इस प्रस्तुति में निर्माणपूर्व, निर्माण के दौरान और निर्माण के बाद ऊर्जा, पानी, भूमि, ठोस अपशिष्ट, वायु की गुणवत्ता औऱ शोर के स्तर के प्रभावी प्रबंधन के लिए करीब 30 पैमानों के बारे में बताया गया था.
कार्यशाला के दौरान केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ' भवनों के लिए पर्यावरणीय दिशानिर्देशों' पर विस्तृत प्रस्तुति पेश की. इस प्रस्तुति में निर्माणपूर्व, निर्माण के दौरान और निर्माण के बाद ऊर्जा, पानी, भूमि, ठोस अपशिष्ट, वायु की गुणवत्ता औऱ शोर के स्तर के प्रभावी प्रबंधन के लिए करीब 30 पैमानों के बारे में बताया गया था.
इस कार्यशाला का आयोजन राज्यों और अन्य हितधारकों को ग्रीन कंस्ट्रक्शन की जरूरत के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए किया गया था क्योंकि भवन निर्माण क्षेत्र देश में उत्पादित बिजली का 40 फीसदी, 30 फीसदी कच्चा माल और 20 – 20 फीसदी पानी और भूमि संसाधनों का उपयोग करता है. इसके अलावा यह क्षेत्र 30 फीसदी ठोस कचरा और 20 फीसदी सीवर का पानी भी पैदा करता है.
राज्यों ने यह कहते हुए कि इन नियमों का कार्यान्वयन संभव है, शहरी इलाकों में निर्माण परियोजनाओं के लिए प्रस्तावित पर्यावरणीय दिशानिर्देशों के अनुपाल को सुनिश्चित करने पर सहमती जताई.
निम्नलिखित प्रमुख प्रावधानों पर मिली व्यापक सहमति इस प्रकार है–
• बिजली का कम–से कम 1% कनेक्टेड अप्लायड लोड फोटोवोल्टायिक बैट्रियों या पवन चक्कियों या हाइब्रिड मोड वाले अक्षय ऊर्जा स्रोतों से पूरा किया जाएगा. सभी आम क्षेत्रों को एलईडी/ सौर रौशनी से रौशन किया जाएगा. समग्र ऊर्जा खपत को मापने के लिए बिजली के मीटर लगाए जाएंगे.
• ऊर्जा दक्षता ब्यूरो द्वारा प्रमाणित ऊर्जा परीक्षकों द्वारा नियमित ऊर्जा ऑडिट सुनिश्चित की जाएगी.
• प्रति 100 वर्ग. मी. भूमि के लिए एक पेड़ लगाया जाएगा. जब इनमें से किसी भी पेड़ को काटा या प्रत्यारोपित किया जाएगा तो काटे जाने वाले प्रत्येक पेड़ की जगह 3 पेड़ों को लगाना सुनिश्चित किया जाएगा.
• वर्षा जल संरक्षण योजना तैयार की जाएगी और प्रत्येक 3,000 वर्ग मीटर भूमि के लिए एक रिचार्ज बोर बनाया जाएगा. भूजल के रिचार्ज और ताप द्वीप प्रभाव को कम करने के लिए न्यूनतम 30% क्षेत्र अनिर्मित रखा जाएगा. घास लगी भूमि को अपवेटेड क्षेत्र माना जाएगा.
• सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) की स्थापना की जाएगी ताकि पैदा हुए ठोस अपशिष्टों का शत– प्रतिशत उपचार सुनिश्चित किया जा सके और बड़ी परियोजनाओं के लिए विकेंद्रीकृत एसटीपी को अपनाया जा सके.
• बिना सक्षम प्राधिकारी के अनुमोदन के प्राकृतिक नाला से पानी के प्रवाह की धारा को नहीं बदला जा सकता .
• ऐसे चैनलों का प्रवेश और निकास जरूर बनाए रखा जाना चाहिए.
• 0.3 किलो/ मकान/ दिन की न्यूनतम क्षमता के साथ जैविक कचरा कंपोस्टर/ कृमि गड्ढे बनाए जाने चाहिए.
• भूतल पर गीले और सूखे कचरे के डिब्बे होने चाहिए ताकि कचरे को अलग करने में सुविधा हो. सभी गैर– जैवसड़नशील कचरों को प्राधिकृत पुनःचक्रकों को ही दिया जाना चाहिए.
• उर्वर उपरी मिट्टी को उस स्थान पर फिर से इस्तेमाल करने के लिए रखना चाहिए क्योंकि एक इंच उर्वर उपरी मिट्टी को बनने में करीब 500 वर्षों का समय लग जाता है.
• भवनों का कब्जा जल निकासी और पानी के कनेक्शन एवं सक्षम प्राधिकारी से अनापत्ति प्रमाण पत्र मिलने के बाद ही दिया जाएगा.
राज्यों ने यह कहते हुए कि इन नियमों का कार्यान्वयन संभव है, शहरी इलाकों में निर्माण परियोजनाओं के लिए प्रस्तावित पर्यावरणीय दिशानिर्देशों के अनुपाल को सुनिश्चित करने पर सहमती जताई.
निम्नलिखित प्रमुख प्रावधानों पर मिली व्यापक सहमति इस प्रकार है–
• बिजली का कम–से कम 1% कनेक्टेड अप्लायड लोड फोटोवोल्टायिक बैट्रियों या पवन चक्कियों या हाइब्रिड मोड वाले अक्षय ऊर्जा स्रोतों से पूरा किया जाएगा. सभी आम क्षेत्रों को एलईडी/ सौर रौशनी से रौशन किया जाएगा. समग्र ऊर्जा खपत को मापने के लिए बिजली के मीटर लगाए जाएंगे.
• ऊर्जा दक्षता ब्यूरो द्वारा प्रमाणित ऊर्जा परीक्षकों द्वारा नियमित ऊर्जा ऑडिट सुनिश्चित की जाएगी.
• प्रति 100 वर्ग. मी. भूमि के लिए एक पेड़ लगाया जाएगा. जब इनमें से किसी भी पेड़ को काटा या प्रत्यारोपित किया जाएगा तो काटे जाने वाले प्रत्येक पेड़ की जगह 3 पेड़ों को लगाना सुनिश्चित किया जाएगा.
• वर्षा जल संरक्षण योजना तैयार की जाएगी और प्रत्येक 3,000 वर्ग मीटर भूमि के लिए एक रिचार्ज बोर बनाया जाएगा. भूजल के रिचार्ज और ताप द्वीप प्रभाव को कम करने के लिए न्यूनतम 30% क्षेत्र अनिर्मित रखा जाएगा. घास लगी भूमि को अपवेटेड क्षेत्र माना जाएगा.
• सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) की स्थापना की जाएगी ताकि पैदा हुए ठोस अपशिष्टों का शत– प्रतिशत उपचार सुनिश्चित किया जा सके और बड़ी परियोजनाओं के लिए विकेंद्रीकृत एसटीपी को अपनाया जा सके.
• बिना सक्षम प्राधिकारी के अनुमोदन के प्राकृतिक नाला से पानी के प्रवाह की धारा को नहीं बदला जा सकता .
• ऐसे चैनलों का प्रवेश और निकास जरूर बनाए रखा जाना चाहिए.
• 0.3 किलो/ मकान/ दिन की न्यूनतम क्षमता के साथ जैविक कचरा कंपोस्टर/ कृमि गड्ढे बनाए जाने चाहिए.
• भूतल पर गीले और सूखे कचरे के डिब्बे होने चाहिए ताकि कचरे को अलग करने में सुविधा हो. सभी गैर– जैवसड़नशील कचरों को प्राधिकृत पुनःचक्रकों को ही दिया जाना चाहिए.
• उर्वर उपरी मिट्टी को उस स्थान पर फिर से इस्तेमाल करने के लिए रखना चाहिए क्योंकि एक इंच उर्वर उपरी मिट्टी को बनने में करीब 500 वर्षों का समय लग जाता है.
• भवनों का कब्जा जल निकासी और पानी के कनेक्शन एवं सक्षम प्राधिकारी से अनापत्ति प्रमाण पत्र मिलने के बाद ही दिया जाएगा.
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