सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2015 के पहले सप्ताह में निर्णय दिया कि यदि सितंबर 2005 से पूर्व पिता की मृत्यु हुई है तो हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के अनुसार बेटी पैतृक संपत्ति की वारिस नहीं हो सकती.
यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्यीय खंड पीठ न्यायमूर्ति अनिल आर दवे और आदर्श कुमार गोयल ने दिया. फैसले में न्यायालय ने कहा है कि 9 सितम्बर 2005 से पूर्व पिता की मृत्यु हुई है तो बेटी पैतृक संपत्ति की वारिस नहीं हो सकती. यानि भाई के साथ सह हिस्सेदार नहीं बन सकती.
यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्यीय खंड पीठ न्यायमूर्ति अनिल आर दवे और आदर्श कुमार गोयल ने दिया. फैसले में न्यायालय ने कहा है कि 9 सितम्बर 2005 से पूर्व पिता की मृत्यु हुई है तो बेटी पैतृक संपत्ति की वारिस नहीं हो सकती. यानि भाई के साथ सह हिस्सेदार नहीं बन सकती.
न्यायालय ने कहा कि यह आवश्यक है कि क़ानून में संशोधन की तारीख तक पुत्री और उसके पिता को भी जीवित होना चाहिए.
न्यायालय ने आदेश में स्पष्ट किया है कि पैतृक संपत्ति का विभाजन, या बिक्री 20 दिसंबर 2004 तक किया गया है तो वह इस आदेश संशोधन 2005 से अप्रभावित रहेगा. ऐसे मामलों में बेटियां किसी भी प्रकार का दावा दायर नहीं कर सकती.
न्यायालय ने आदेश में स्पष्ट किया है कि पैतृक संपत्ति का विभाजन, या बिक्री 20 दिसंबर 2004 तक किया गया है तो वह इस आदेश संशोधन 2005 से अप्रभावित रहेगा. ऐसे मामलों में बेटियां किसी भी प्रकार का दावा दायर नहीं कर सकती.
पृष्ठभूमि
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, मूल रूप से बेटियों को पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार नहीं देता. इस अधिनियम के अनुसार वे संयुक्त हिन्दू परिवार से केवल भरण-पोषण का अधिकार रखती हैं, वे संपत्ति में हिस्सेदारी की हकदार नहीं हैं.
2005 में हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के अनुसार पुरुष भाई बहनों के साथ-साथ बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबर उत्तराधिकार का अधिकार दिया गया और उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संशोधन कर इसे पारित किया गया.
2005 में हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के अनुसार पुरुष भाई बहनों के साथ-साथ बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबर उत्तराधिकार का अधिकार दिया गया और उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संशोधन कर इसे पारित किया गया.
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